10 Nikah Facts in Islam: निकाह की 10 सच्चाइयाँ आपकी सोच बदल देंगी

अगर हम आज के दौर को देखें, तो शादी यानि Nikah को लेकर लोगों की सोच कितनी बदल चुकी है। बड़े हॉल, शानो-शौकत, दहेज, महँगे लिबास, सोशल मीडिया की तस्वीरें, ऐसा लगता है जैसे निकाह का असल मक़सद कहीं इन रस्मों के पीछे छिप गया हो।

लेकिन इस्लाम हमें बताता है कि निकाह न किसी दिखावे का नाम है, न कोई formal contract, बल्कि ये एक रूहानी वादा (Divine Covenant) है, एक ऐसा पवित्र बंधन जो दो दिलों को सुकून, मोहब्बत और रहमत के साथ जोड़ता है।

इस्लाम कहता है कि निकाह सिर्फ़ दो लोगों का साथ नहीं, बल्कि दो खानदानों, दो जज़्बातों और दो रूहों का मिलन है। हम में से अक्सर लोग सोचते हैं कि शादी बस एक रस्म है लेकिन नबी करीम ﷺ ने nikah को दीन का “आधा हिस्सा” बताया है। जिसका मतलब जब तक इन्सान nikah नहीं करता है तब तक उसका ईमान अधूरा रहता है, क़ुरान और हदीस में इसके बारे कुछ इस तरह आया है |

“और उसकी निशानियों में से यह है कि उसने तुम्हारे लिए तुम्हारी ही जाति से जोड़े पैदा किए, ताकि तुम 
उनमें सुकून पाओ; और उसने तुम्हारे दरमियान मोहब्बत और रहमत रख दी।”

Qur’an 30:21
“जब इंसान शादी करता है, वह अपने दीन का आधा पूरा कर लेता है।” 

Tirmidhi

यानि निकाह सिर्फ़ दुनियावी ज़रूरत नहीं, बल्कि ईमान का एक अहम हिस्सा है। जब शादी सुन्नत पर, सादगी के साथ और अल्लाह की रज़ामंदी के लिए की जाती है, तो वही शादी दुनिया में भी राहत बनती है और आख़िरत में भी सवाब का ज़रिया होती है ।

आज बहुत ज़रूरी है कि हम निकाह की असल सीख जैसे रज़ामंदी, महर, वलीमा, दहेज, इंसाफ़, ज़िम्मेदारी को अच्छी तरह समझें और दूसरों तक भी पहुँचाएँ। क्योंकि जब निकाह सुन्नत के मुताबिक़ होता है, तब उसमें फ़िक्र, करम, मोहब्बत और रहमत ख़ुद उतरती चली जाती हैं।

तो चलिए, इस्लाम की रोशनी में निकाह की 10 सच्चाइयाँ और हक़ीक़तें (10 Nikah Facts in Islam) बिलकुल आसान ज़बान में, आपके सामने बयान करेंगे जो आपकी सोच बदल देंगी।

10 Nikah Facts in Islam:

निकाह की 10 सच्चाइयाँ आपकी सोच बदल देंगी

अगर आप इस्लाम में निकाह के पूरे सिस्टम को सिर्फ़ एक लाइन में समझना चाहें, तो वह है कि: “बिना रज़ामंदी के निकाह, निकाह ही नहीं।”

इस्लाम ने लड़की और लड़के, दोनों की खुली, साफ़ और दिल से निकली हुई रज़ामंदी को निकाह की पहली शर्त बनाया है। यह इतना अहम है कि नबी करीम ﷺ ने साफ़ तौर पर फ़रमाया कि लड़की की इजाज़त के बिना उसका निकाह न किया जाए।

आज भी आप देखते होंगे कि लड़कियों को दबाव, समाज का डर, या “लोग क्या कहेंगे” के नाम पर “हाँ” कहने पर मजबूर किया जाता है। मगर इस्लाम ऐसे किसी निकाह को क़ुबूल नहीं करता। अल्लाह और उसके रसूल ﷺ ने हर इंसान को यह हक़ दिया है कि वह अपना जीवन-साथी अपनी मरज़ी से चुने। क़ुरआन भी कहता है:

“उन्हें ज़बरदस्ती न रोको…” (Qur’an 2:232)

इसका मतलब यह है कि चाहे मामला शादी का हो या जुदाई का किसी भी तरह का दबाव हराम है।

और सच बताऊँ? रज़ामंदी सिर्फ़ एक कानूनी शर्त नहीं, बल्कि रिश्ते की बुनियाद है। जब दोनों दिल से एक-दूसरे को चुनते हैं, तभी शादी में सुकून, वफ़ा और मोहब्बत पैदा होती है। और जब शुरुआत ही दबाव से हो, तो रिश्ता बोझ बन जाता है। यहाँ पर इस्लामी नज़रिया बिलकुल साफ़ है: निकाह तभी मुकम्मल है, जब दोनों दिल उसे खुशी से क़ुबूल करें।

नबी करीम ﷺ ने साफ़ फ़रमाया:

“निकाह मेरी सुन्नत है, और जो मेरी सुन्नत से रुख़ फेर ले, वह मुझसे नहीं।”

शादी करना सिर्फ़ एक दुनियावी ज़रूरत नहीं है, बल्कि ये एक ऐसा अमल है जिसके जरिए आप सीधा नबी ﷺ की राह पर चल रहे होते हैं। यानि जब आप सादगी और सुन्नत पर अमल के साथ निकाह करते हैं, तो असल में आप एक इबादत कर रहे होते हैं, एक ऐसा काम जो आपके अधूरे दीन को पूरा कर देता है, और आपकी ज़िंदगी में बरकत लाता है।

नबी करीम ﷺ ने हमें यह भी सिखाया कि शादी को आसान बनाओ, मुश्किल नहीं। यानी:

  • दिखावा नहीं
  • बोझ नहीं
  • फ़िजूलखर्ची नहीं
  • और न ही बेकार की रस्में

बस सादगी, इख़लास और अच्छी नियत।

और सच यह है कि जब इंसान सुन्नत की नियत से शादी करता है, तो घर में रहमत ख़ुद उतरती है, मोहब्बत बढ़ती है, सब्र आता है और इंसाफ़ पैदा होता है।

10 Nikah Facts in Islam

महर को लेकर एक गलतफ़हमी ये पाई जाती है। कि महर कोई लेन-देन है, या दुल्हन को “खरीदने” जैसा कोई सिस्टम, जबकि इस्लाम में महर की हकीकत इससे बिल्कुल उलट है। और वो ये है कि महर एक तोहफ़ा है, इज़्ज़त, मोहब्बत और सम्मान का तोहफ़ा। अल्लाह तआला क़ुरआन में फ़रमाते हैं:

“महर उन्हें खुशी-खुशी अदा करो।” (Qur’an 4:4)

इस एक आयत में दो बातें बहुत गहरी हैं:

  1. महर देना शौहर की ज़िम्मेदारी है।
  2. यह खुशी और दिल की रज़ामंदी से दिया जाना चाहिए।

महर की ख़ूबसूरती यह है कि वह छोटा हो या बड़ा, इससे निकाह में कोई कमी या रुकावट नहीं आती। यहीं से ये पैग़ाम मिलता है और बात साफ़ हो जाती है कि महर का असल मक़सद रकम नहीं, बल्कि नियत, मोहब्बत और इज़्ज़त है।

और सबसे अहम बात, महर दुल्हन का पूरा हक़ है। वह चाहे तो उसे बचाए, चाहे खर्च करे, चाहे किसी नेक काम में लगाए। शौहर उस में कोई दखलन्दाज़ी (Interfere) नहीं कर सकता। और महर कभी भी दिखावा या बोझ नहीं होना चाहिए। जितना महर आसान होगा, उतनी ही शादी में बरकत और मोहब्बत बढ़ेगी।

अगर निकाह की बरकत कहीं सबसे ज़्यादा खत्म होती है, तो वह दहेज की वजह से, हमारे समाज में दहेज को इतना “नॉर्मल” बना दिया गया है कि लोग इसे शादी का हिस्सा समझने लगे हैं, जबकि इस्लाम में दहेज का ज़रा सा भी अस्तित्व (वजूद) नहीं है।

और सच यह है कि: इस्लाम दहेज को पूरी तरह नकारता है, दुल्हन के घर से एक चम्मच तक माँगने का हक़ किसी को नहीं है, दहेज एक तहज़ीबी रिवाज़ है, शरई हुक्म नहीं, यह उन बुरी आदतों में से है जिसने हजारों परिवारों को कर्ज़ में डाला, बेटियों के निकाह को मुश्किल बनाया, हालाँकि इस्लाम ने तो निकाह को आसान बनाया था लेकिन दहेज ने उसी आसानी को खत्म कर दिया।

इस्लाम का पैग़ाम है कि:

  • निकाह आसान करो
  • बोझ मत डालो
  • दिखावा मत करो
  • और लड़कियों को अल्लाह की रहमत समझो, जिम्मेदारी और बोझ नहीं

नबी करीम ﷺ ने जिन शादियों को पसंद किया, वे सादगी वाली थीं जहाँ न फिज़ूलखर्ची थी, न तड़क-भड़क, और न ही कोई शर्त। एक ख़ूबसूरत बात याद रखें:

महर – दुल्हन का हक़ है।
दहेज – दुल्हन से छीना गया हक़ है।

जो लोग दहेज माँगते हैं, वे निकाह को इबादत नहीं, एक सौदा बना देते हैं। और इस्लाम निकाह को सौदा बनने देता ही नहीं, क्योंकि यह रूहों का मिलन है, बाजार का नहीं।

इस्लाम की एक सबसे खूबसूरत बात यह है कि वह इंसान की इज़्ज़त और उसकी आज़ादी की हिफ़ाज़त करता है खासकर निकाह के मामले में इस्लाम बहुत साफ़-साफ़ कहता है कि: किसी पर दबाव डालकर की गई शादी ना जाएज़ है।

बहुत से घरों में आज भी ऐसा होता है कि लड़की पर दबाव डाला जाता है, “हमारी इज़्ज़त का सवाल है…” “लोग क्या कहेंगे…” “माँ-बाप की बात नहीं मानोगी क्या…”लेकिन इस्लाम में यह सब किसी भी तरह से जायज़ नहीं। नबी ﷺ के दौर में भी एक लड़की अपने ऊपर जबरदस्ती किए गए निकाह की शिकायत लेकर पहुंची, और नबी ﷺ ने उस निकाह को तुरंत रद्द कर दिया। (सहिह बुखारी)

सोचिए… यह कितना बड़ा पैग़ाम है।
इस्लाम आपको यह हक़ देता है कि आप अपनी जिंदगी का सबसे अहम फैसला, (किसके साथ पूरी जिंदगी बितानी है), पूरी आज़ादी, इत्मीनान और खुशी के साथ खुद करें। क़ुरआन भी कहता है:

“उनके साथ भलाई से रहो…” 

(Qur’an 4:19)

तो जहाँ भलाई है, वहाँ जबरदस्ती का कोई सवाल ही नहीं। और असली निकाह वही है जिसमें:

  • दोनों की दिल की रज़ामंदी हो
  • खुशी हो
  • भरोसा हो
  • और कोई दबाव न हो

क्योंकि याद रखें – जबरदस्ती रिश्ता नहीं बनाती, तनाव पैदा करती है। और रज़ामंदी मोहब्बत का दरवाज़ा खोलती है।इस्लाम में माँ-बाप की इज़्ज़त है, लेकिन उनका हक़ बच्चे की रज़ामंदी को कुचलने का नहीं है, अगर किसी पर ज़हनी, emotional या सामाजिक दबाव डालकर उसकी शादी कराई जाए, तो यह इस्लाम की नज़र में ज़ुल्म है।

अगर निकाह को एक लाइन में बयान करें, तो वह यह होगा: “शादी हुकूमत नहीं, साझेदारी है।”

इस्लाम में Husband और Wife दोनों के हक़ूक़ और ज़िम्मेदारियाँ बहुत खूबसूरती से तय की गई हैं। लेकिन इन जिम्मेदारियों का मतलब यह बिल्कुल नहीं कि एक “बॉस” है और दूसरा “मातहत”। इस्लाम की नज़र में दोनों की इज़्ज़त बराबर है, बस रोल और भूमिकाएँ अलग हैं। क़ुरआन कहता है:

“वे तुम्हारे लिए लिबास हैं और तुम उनके लिए लिबास हो।” (Qur’an 2:187)

सोचिए, “लिबास” क्यों कहा? इसलिए क्योंकि कपड़ा:

  • ढकता है
  • छुपाता है
  • खूबसूरत बनाता है
  • और ठंड-गर्मी से बचाता है

यानी मियां-बीवी भी एक दूसरे के लिए यही काम करते हैं सहारा, सुकून, इज़्ज़त और हिफ़ाज़त कमियों को छुपाना वगैरह ।

शौहर की ज़िम्मेदारी:बीवी की ज़िम्मेदारी:
नफ़क़ा (खर्च)घर को सुहाना माहौल देना
सुरक्षा (हिफ़ाज़त)मोहब्बत और नरमी
घर चलानासाथ निभाना
जिम्मेदारी उठानारिश्तों को संवारना

लेकिन ज़िम्मेदारी का मतलब यह नहीं कि कोई ऊपर है और कोई नीचे, बल्कि यह एक teamwork है, जहाँ दोनों की मेहनत और दोनों का दिल मिलकर रिश्ते को खूबसूरत बनाते हैं। असल में शादी तभी चलती है जब:

  • शौहर हुक्म चलाने वाला नहीं, समझने वाला हो
  • बीवी मुकाबला करने वाली नहीं, साथ देने वाली हो
  • दोनों में सब्र हो
  • और दोनों एक-दूसरे को इंसान समझें, खामियों और खूबियों के साथ

इस्लाम का नज़रिया बिल्कुल साफ़ है: जहाँ इंसाफ़, मोहब्बत और समझदारी है, वहीँ असली निकाह है।

10 Nikah Facts in Islam

ये बात बिलकुल हक़ और सच है कि शादी एक खूबसूरत रिश्ता है, लेकिन यह भी सच है कि कभी कभी पूरी कोशिशों के बावजूद चीज़ें वैसे नहीं चल पातीं जैसी उम्मीद होती है। इस्लाम एक practical religion है, इसलिए यह मानता है कि हर एक रिश्ता हमेशा नहीं चल सकता। इसी वजह से तलाक़ और खुला की गुंजाइश रखी गई है।

लेकिन… यहाँ ये बात ध्यान रखें कि इस्लाम ने तलाक़ की जाज़त तो दी है लेकिन इसको “सबसे नापसंद हलाल चीज़” कहा है। यानी वो allowed तो है, लेकिन इसे हल्के में लेना या जल्दबाज़ी में करना इस्लामी नजरिए से ठीक नहीं है।

इस्लाम में तलाक़ का तरीका यह है:

  1. पहले बातचीत हो
  2. फिर समझौता और सलाह मशवरा हो
  3. फिर दोनों घरों के समझदार लोग बैठें
  4. और अगर सब कोशिशों के बाद भी बात नहीं बनती, तब जुदाई आख़िरी कदम हो

इसका मतलब यह है कि तलाक़ कोई लड़ाई का हथियार नहीं है, न किसी को दबाने का तरीका। बल्कि यह एक last option है, जो सोच समझकर, इंसाफ़ और शराफत के साथ इस्तेमाल किया जाता है।

सबसे अहम बात: जुदाई के वक़्त भी इस्लाम भलाई, नरमी और इंसाफ़ का हुक्म देता है। कुरआन बार-बार कहता है कि:

  • औरतों के हक़ न मारो
  • उनकी इज़्ज़त को ठेस मत पहुँचाओ
  • तलाक़ को बदले या गुस्से का ज़रिया मत बनाओ

और खुला (Khula) भी इस्लाम ने इसलिए दिया है ताकि अगर किसी औरत को रिश्ते में तंगी, दबाव या तकलीफ़ महसूस हो, तो उसे बाहर निकलने का शरई और इज्ज़त का रास्ता मिले।

असल बात यह है: इस्लाम रिश्ते की अहमियत समझता है, लेकिन इंसान की इज़्ज़त और भलाई को उससे भी ज़्यादा अहम मानता है।

इस्लाम में “चार शादियों” की इजाज़त को लेकर लोगों में सबसे ज़्यादा गलतफ़हमी पाई जाती है। कुछ लोग इसे “मर्द का हक़” समझते हैं, जबकि कुछ इसे गलत तरीक़े से पेश करते हैं। लेकिन सच यह है कि इस्लाम का नज़रिया बहुत (Balanced) संतुलित है।

बात समझिए: इस्लाम की नज़र में एक शादी सबसे बेहतर है। दूसरी, तीसरी या चौथी शादी की इजाज़त तो है, लेकिन शर्तें इतनी सख़्त हैं कि अगर आदमी ईमानदारी से उनका जायज़ा ले, तो उसे खुद ही समझ आ जाएगा कि यह किसी रुतबे का नाम नहीं, बल्कि भारी जिम्मेदारी है। और इसीलिए क़ुरआन साफ़ आगाह किया है:

“अगर तुम्हें डर हो कि तुम इंसाफ़ नहीं कर सकोगे, तो सिर्फ़ एक ही।” (Qur’an 4:3)

यानि:

  • माली इंसाफ़ – सब बीवियों का खर्च बराबर
  • वक़्ती इंसाफ़ – टाइम बराबर देना है किसी को कम या किसी को ज़्यादा नहीं
  • जज़्बाती इंसाफ़ – दिल से सबके लिए बराबर तवज्जो रखना
  • व्यवहारिक इंसाफ़ – किसी के साथ नर्मी या सख़्ती में फर्क नहीं

अब सोचिए… क्या हर इंसान यह सब निभा सकता है? अक्सर लोग नहीं। इसलिए नबी करीम ﷺ और सहाबा के दौर में भी चार शादियाँ ज्यादातर खास हालात में होती थीं, जब किसी की जिम्मेदारी उठाना, यतीम बच्चों की हिफ़ाज़त या समाज के मसले हल करना मक़सद होता था, न कि शौक़ या हवस।

इस्लाम का असल मक़सद यह है, कि अगर कभी किसी मर्द पर ऐसा हालात आ जाएँ जहाँ वह दूसरी शादी करे, तो वह किसी के हक़ न मारे। लेकिन अगर इंसाफ़ का डर हो-even थोड़ा सा- तो सिर्फ़ एक ही बीवी रखना वाजिब है। यानी चार शादियाँ:

  • न कोई “status symbol” हैं
  • न कोई “open permission”
  • बल्कि एक “conditional responsibility” हैं

इस्लाम हमेशा इंसाफ़ को पहले रखता है, शादी हो, तलाक़ हो या polygamy।

निकाह के बाद वलीमा एक खूबसूरत सुन्नत है। यह कोई शानो-शौकत का मौका नहीं, बल्कि अल्लाह का शुक्र अदा करने का, लोगों से दुआएँ लेने का और खुशी बाँटने का एक बेहतरीन तरीका है। लेकिन आजकल वलीमा को इतना भव्य बना दिया गया है कि कभी-कभी सुन्नत पीछे रह जाती है और दिखावा आगे आ जाता है।

नबी ﷺ ने फ़रमाया: “वलीमा करो, चाहे एक बकरी ही क्यों न हो।” (सहिह बुखारी)

इस्लाम यह नहीं कहता कि वलीमा बड़ा करो या छोटा। बल्कि यह कहता है:

  • घर छोटा हो, दिल बड़ा हो
  • खाना मामूली हो, नियत साफ़ हो
  • लोग कम हों, दुआएँ ज्यादा हों

असल वलीमा वो है जहाँ:

  • दिखावा न हो
  • फिज़ूलखर्ची न हो
  • कर्ज़ न लेना पड़े
  • और न ही किसी गरीब को शरमिंदगी उठानी पड़े

याद रखें – वलीमा की खूबसूरती खर्चे में नहीं, बल्कि नेक नियत और सादगी में होती है। एक सादा वलीमा सुन्नत है, जबकि दिखावे वाला वलीमा कई बार गुनाह और रिया (show-off) का कारण बन जाता है।

अक्सर हमारे समाज में “क़व्वाम” शब्द को गलत समझा जाता है। कुछ लोग इसे “हुकूमत चलाने का हक़” समझ बैठते हैं, जबकि इस्लाम में क़व्वामियत का मतलब कुछ और ही है।

क़ुरआन में अल्लाह फ़रमाता है:
“मर्द औरतों के क़व्वाम हैं क्योंकि वे उन पर खर्च करते हैं।” (Qur’an 4:34)

यहाँ “क़व्वाम” का मतलब है: ज़िम्मेदारी उठाने वाला, सुरक्षा देने वाला, संभालने वाला, सहारा बनने वाला। इसका मतलब बिल्कुल भी “हुक्म चलाने वाला” या “जबरदस्ती करने वाला” नहीं है।

जिम्मेदारी + मोहब्बत + हिफ़ाज़त = क़व्वामियत

इस्लामी नज़रिए से मर्द की जिम्मेदारियाँ:

  • हलाल कमाई लाना
  • घर का खर्च उठाना
  • बीवी-बच्चों की हिफ़ाज़त करना
  • उनकी जरूरतों की फ़िक्र करना
  • और रिश्ते को प्यार, सुकून और इज़्ज़त से निभाना

ध्यान दीजिए! इस्लाम ने अमीर होना जरूरी नहीं कहा, लेकिन जिम्मेदार और मेहनती होना जरूरी कहा है। क़व्वाम वही है जो अपने घर को डर से नहीं, बल्कि मोहब्बत और समझदारी से चलाए। जो अपनी बीवी का सम्मान करे, उसके जज़्बात समझे और उसके हक़ अदा करे।

इस्लाम में सरपरस्ती का मतलब “power” नहीं बल्कि “protection” है। अगर मर्द इस जिम्मेदारी को ईमानदारी से निभाए, तो घर में रहमत और सुकून अपने आप उतरता है। असली मर्दानगी यह नहीं कि घर पर आवाज़ ऊँची हो बल्कि असली मर्दानगी यह है कि बीवी और बच्चों के दिल में आपके लिए दुआ हो, डर नहीं।

निकाह: दो रूहों का सफ़र, सिर्फ़ एक दिन की रस्म नहीं

आख़िर में एक बात दिल से समझ लीजिए…
इस्लाम में निकाह सिर्फ़ दो लोग, दो नाम, या दो परिवारों का मिलना नहीं है बल्कि यह दो रूहों का ऐसा सफ़र है जिसे अल्लाह अपने रहमत के साए में शुरू करवाता है। यही वजह है कि शादी की असल खूबसूरती महंगे लिबास, रोशनी, हॉल या सजावट में नहीं होती बल्कि इस बात में होती है कि आप एक-दूसरे के लिए सुकून का ज़रिया बन पाए या नहीं।

क़ुरआन हमें बताता है कि अल्लाह ही मियां-बीवी के दिलों में मोहब्बत और रहमत डालता है। और सुन्नत हमें यह सिखाती है कि रिश्ते दिखावे और बोझ से नहीं, बल्कि सादगी, इख़लास, सब्र और इंसाफ़ से मजबूत होते हैं।

इस्लाम का मजबूत पैग़ाम यह है कि:

  • शादी आसान बनाओ
  • दहेज हटाओ
  • महर अदा करो
  • रज़ामंदी का ख्याल रखो
  • शादी को साझेदारी समझो
  • और अल्लाह से डरकर इंसाफ़ करो

जब निकाह सुन्नत, तक़वा और मोहब्बत के साथ होता है, तो अल्लाह उस घर में ऐसी बरकत देता है जो पैसे, हॉल, डेकोरेशन और रस्में कभी नहीं दे सकतीं।

रिश्ते का असली इम्तिहान शादी के दिन नहीं, बल्कि उसके बाद शुरू होता है। और वही रिश्ता कामयाब होता है जिसमें दोनों एक-दूसरे की कमियों पर सब्र, खूबियों पर शुक्र और गलती पर माफी देते हैं।

1. इस्लाम में निकाह इतना अहम् क्यों है?

क्योंकि निकाह सिर्फ़ एक सामाजिक रिश्ता नहीं, बल्कि इबादत है और नबी ﷺ की सुन्नत है। और यह दो दिलों को मोहब्बत, रहमत और सुकून के साथ जोड़ता है।

2. क्या लड़की और लड़के की रज़ामंदी के बिना निकाह हो सकता है?

लड़का और लड़की ने अगर क़ुबूल किया है तो निकाह तो हो जायेगा चाहे ज़बरदस्ती ही क्यूँ न हो,लेकिन इस्लाम में बिन रज़ामंदी के निकाह जाएज़ नहीं। दोनों की खुशी, पसन्द और साफ़ दिल से इजाज़त जरूरी है।

3. महर क्या दुल्हन की कीमत है?

बिलकुल नहीं, बल्कि महर दुल्हन का सम्मान है, उसका हक़ है, यह एक तोहफ़ा है जिसे शौहर खुशी से देता है, और यह किसी सौदे या खरीद-फरोख्त की चीज़ बिलकुल भी नहीं है।

4. क्या इस्लाम दहेज की इजाज़त देता है?

इस्लाम दहेज को बिल्कुल भी नहीं मानता बल्कि दहेज एक तहज़ीबी रिवाज़ है, शरई अमल नहीं, और दहेज रिश्ता शुरू होने से पहले ही बोझ बना देता है।

5. अगर शादी न चले तो क्या तलाक़ जायज़ है?

हाँ, लेकिन यह आख़िरी option है। इस्लाम सुलह, बातचीत और समझौते को पहले रखता है। तलाक़ allowed है, मगर नापसंद।

6. क्या इस्लाम में चार शादियों की खुली इजाज़त है?

नहीं। यह सख़्त शर्तों के साथ है, सबसे बड़ी शर्त है इंसाफ़। अगर इंसाफ़ का ज़रा सा भी डर हो, तो सिर्फ़ एक बीवी ही रखना वाजिब है।

7. वलीमा को बड़ा करने का हुक्म है?

नहीं, वलीमा सुन्नत है, और उसकी खूबसूरती सादगी में है। नबी करीम ﷺ ने फ़रमाया :“चाहे एक बकरी से ही वलीमा करो।”

8. “क़व्वाम” का असली मतलब क्या है?

क़व्वामियत का मतलब हुक्म चलाना नहीं, बल्कि ज़िम्मेदारी, हिफ़ाज़त, खर्च और रहमत के साथ घर की सरपरस्ती करना है।

Leave a Comment